भाई बहन के अटूट बंधन का प्रतीक है मिथिलांचल का लोकपर्व सामा-चकेवा, जानें इसके बारे में

भाई बहन के अटूट बंधन का प्रतीक है मिथिलांचल का लोकपर्व सामा-चकेवा, जानें इसके बारे में


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Sama Chakeva Festival: सामा चकेवा मिथिलांचल का प्रमुख लोकपर्व है. यह भाई-बहन के अटूट प्यार का प्रतीक है. यह पर्व कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक चलता है. नौ दिवसीय लोकपर्व सामा-चकेवा मिथिलांचल की संस्कृति से जुड़ा हुआ है. इस पर्व में भाई-बहन के स्नेह की पवित्रता देखने को मिलती है.

मिथिला की परंपराओं में सामा चकेवा घर-घर की पहचान है. यह त्योहार उसी श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया जाता है. छठ महापर्व के ठीक बाद यह पर्व शुरू हो जाता है. छठ पूजा के ठीक बाद सामा चकेवा के मुधर गीत सुनाई देने लगते हैं. अभी यह पर्व पूरे मिथिलांचल में पूरे उत्साह के साथ मनाया जा रहा है. इसमें  आंगन में मिट्टी की मूर्तियाँ सजती हैं.  

कार्तिक पूर्णिमा के दिन इस पर्व का समापन होता है. समापन के समय भाइयों द्वारा सामा-चकेवा की मूर्तियों को घुटने से तोड़ा जाता है और फिर उन्हें खेतों, नदियों या तालाबों में विसर्जित किया जाता है. पंचकोसी मिथिला में इन्हें जुते हुए खेतों में विसर्जित करने की परंपरा है. 

बिहार और नेपाल में मनाया जाता है यह पर्व

सामा-चकेवा का मुख्य उद्देश्य भाई-बहन के अटूट प्रेम और संरक्षण से जुड़ा है. इस पर्व में बहनें अपने भाइयों की दीर्घायु, सुख और समृद्धि की कामना करती हैं. वे  समूहों में सामा-चकेवा खेलने निकलती हैं. शाम के समय चौक-चौराहों या खेतों में बांस के बने रंगीन डाले में सामा, चकेवा, चुगला, और अन्य प्रतीकात्मक मूर्तियों को सजाती हैं.

इन मूर्तियों की पूजा की जाती है. फिर महिलाएं पारंपरिक गीत गाती हैं. बिहार में यह पर्व सहरसा, दरभंगा, मधुबनी और सुपौल जैसे क्षेत्रों में त्योहार विशेष उत्साह से मनाया जाता है. सामा-चकेवा हिमालय की तलहटी से लेकर गंगा के तटों तक, चंपारण से लेकर दीनाजपुर तक पूरे उत्तर बिहार और नेपाल तराई के क्षेत्रों में बड़े उत्साह से मनाया जाता है. यह मिथिलांचल की सामूहिक सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है.

भगवान कृष्ण से जुड़ा है यह पर्व

सामा-चकेवा की कथा का संबंध भगवान कृष्ण की पुत्री श्यामा (सामा) और पुत्र शाम्भ से माना जाता है. लोककथा के अनुसार, किसी चुगलखोर व्यक्ति की वजह से गलतफहमी उत्पन्न हुई थी, जिससे दोनों को दुख सहना पड़ा.

बाद में सत्य साबित होने पर भाई-बहन का प्रेम पुनः स्थापित हुआ. इसी कथा के आधार पर त्योहार में एक नकारात्मक पात्र ‘चुगला’ की मूर्ति भी बनाई जाती है, जिसे अंतिम दिन जलाया जाता है. यह परंपरा समाज में चुगलखोरी, झूठ और बुराई के अंत का प्रतीक है.

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