Chaitra Navratri 2024 : जबलपुर के बूढ़ी और बड़ी खेरमाई मंदिर में उमड़ती है जनमेदिनी, गोंड शासक ने बनवाई थी मढ़िया

Chaitra Navratri 2024 : जबलपुर के बूढ़ी और बड़ी खेरमाई मंदिर में उमड़ती है जनमेदिनी, गोंड शासक ने बनवाई थी मढ़िया

खेरमाई माता मंदिर को पहले खेरो माता के नाम से जाना जाता था।

By Dheeraj kumar Bajpai

Publish Date: Sat, 06 Apr 2024 11:23 AM (IST)

Up to date Date: Sat, 06 Apr 2024 11:23 AM (IST)

HighLights

  1. गोंड राजवंश की आराध्य थीं माला देवी।
  2. संस्कारधानी जहां शक्ति की भक्ति करते हैं श्रद्धालु।
  3. जबलपुर में बसती है जनजाति संस्कृति की आत्मा।

Chaitra Navratri 2024 : दीपक जैन, नई दुनिया, जबलपुर। भारत का हृदय स्थल जबलपुर है, जहां जनजाति संस्कृति की आत्मा बसती है। यही वह नगर है जहां आज भी जनजातीय समाज हिंदू संस्कृति के ऐक्य भाव को समाहित कर मां भगवती की उपासना करते हैं। पूजन पद्धति भले ही अलग हो लेकिन ऐसे कई मंदिर शहर और आसपास मौजूद हैं जहां सैकड़ों वर्षो से जनजाति अनवरत पूजन करने पहुंचते हैं। देखा जाए तो जनजातीय संस्कृति जबलपुर के लिए एक उपहार है। यहां सैकड़ों वर्षो से खेरमाई माता का पूजन हिंदू और जनजातीय मिलकर कर रहे हैं। जिसमें आज भी सनातन परंपरा का निर्वाह किया जाता है।

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खेरमाई माता मंदिर को पहले खेरो माता के नाम से जाना जाता था

गोंड संस्कृति में खेरमाई माता का पूजन वर्षों से किया जा रहा है। इन्हीं मंदिरों में हिंदू नवरात्र पर्व पर विशेष आराधना करने पहुंचते हैं। खेरमाई माता मंदिर को पहले खेरो माता के नाम से जाना जाता था। जो ग्राम देवी के रूप में पूजी जाती हैं। बसाहट के अनुसार मंदिरों की स्थापना भी बढ़ती गई। जबलपुर में मां बड़ी खेरमाई मंदिर भानतलैया और मां बूढ़ी खेरमाई (खेरदाई) मंदिर चार खंबा में सैकड़ों वर्षो से जनजाति और हिंदू मिलकर पूजन कर रहे हैं। धीरे-धीरे उपनगरीय क्षेत्रों में भी खेरमाई माता की स्थापना की गई जिसे अब छोटी खेरमाई मंदिर के नाम से जाना जाता है।

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संग्रामशाह ने कराई थी मंदिर की स्थापना

बड़ी खेरमाई मंदिर भानतलैया के बारे में बताया जाता है कि एक बार गोंड राजा मदन शाह मुगल सेनाओं से परास्त होकर यहां खेरमाई मां की शिला के पास बैठ गए। पूजा के बाद उनमें शक्ति मिली और राजा ने मुगल सेना पर आक्रमण कर उन्हें परास्त किया। 500 वर्ष पूर्व गोंड राजा संग्रामशाह ने मढ़िया की स्थापना कराई थी। शहर अब महानगर हो गया है लेकिन आज भी मां खेरमाई (खेरदाई) का ग्राम देवी के रूप में पूजन किया जाता है।

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गोंड राजवंश की आराध्य थीं माला देवी

गढ़ा ब्राह्मण मोहल्ला में मालादेवी की प्रतिमा 14 सौ साल से है। मालादेवी का पूजन 6वीं शताब्दी से हो रहा है। ये कल्चुरी हैहय चंदेल क्षत्रिय वंश की कुलदेवी हैं। माला देवी भगवती महालक्ष्मी के स्वरूप में हैं। गोंडवंश की महारानी वीरांगना दुर्गावती नियमित रूप से आराधना कर अपने वैभव का आशीर्वाद मांगती थीं। वर्तमान स्थल के सामने राजा शंकर शाह का महल था, राजा शंकर शाह सुबह सबसे पहले माँ भगवती के दर्शन करते थे। पहले मढ़िया में केवल एक पत्थर और वहां बानों को ही लोग पूजते थे, परन्तु 10 वी शताब्दी में पत्थर की मूर्ति मढ़ा दी गई थी। अभी भी वही मूर्ति पूजी जा रही हैं। माला देवी गढ़ा कटंगी के गोंड राजवंश की आराध्या थी अब जनसाधारण की पूज्य देवी हैं।

यहां देखने को मिलते हैं हर धर्म के उत्सव

प्रसिद्ध इतिहासकार डा. आनंद सिंह राणा के अनुसार भारत के मानचित्र पर जबलपुर केंद्र बिंदु तो है ही इसे जनजाति संस्कृति का केंद्र भी माना जाता है। यही वह शहर है जहां आज भी जनजाति समाज हिंदू संस्कृति के मूल में होकर माँ दुर्गा की उपासना करते हैं। देखा जाए तो जनजातीय संस्कृति जबलपुर के लिए एक उपहार है। हिन्दू संस्कृति में जनजातीय समाज में बड़ा देव को मूल माना गया है।

दोनों सनातन धर्म का ही पालन कर रहे हैं

हिंदू संस्कृति में शिव के रूप में शिरोधार्य हैं। लेकिन दोनों सनातन धर्म का ही पालन कर रहे हैं। देखा जाए तो जनजातीय और हिंदू संस्कृति किसी भी दृष्टिकोण से पृथक नहीं हैं। भारतीय संस्कृति में देवी पूजा को मुख्य माना गया है और वही जनजातीय संस्कृति में प्रकृति पूजन के रुप शिरोधार्य है। यही कारण है कि जनजातीय प्रकृति की उपासना करते हुए वन प्रदेशों में रहे और शेष नगरीय क्षेत्रों में निवास करते हैं। संस्कारधानी को देखा जाए तो वह अपने आप में एक संस्कृति है। जहां सभी धर्म के लोग रहते हैं और यहां हर धर्म के उत्सव देखने मिलते हैं। इसलिए आचार्य विनोबा भावे ने इसे संस्कारधानी का नाम दिया। यह एक शाश्वत नगरी है।

गोंड शासक करते थे प्रकृति की उपासना

जनजातीय प्रकृति पूजन को प्रधानता देते हैं लेकिन प्रकृति के तत्वों से ही मिलकर मूर्ति की स्थापना कर पूजन शुरू हुआ। शहर के बड़े प्राचीन मंदिरों की बात करें तो यह कहीं न कहीं गोंड संस्कृति से जुड़ा रहा। यही कारण है कि जहां गोंड शासकों ने जहां शहर में कुआं, तालाब और बावड़ियों का निर्माण कर प्रकृति की उपासना की वहीं मंदिरों का भी जीर्णोद्धार कराकर संरक्षित किया।

यहां बाना चढ़ाने की परंपरा है विशेष

चार खंबा स्थित माँ धूमावती मंदिर को बूढ़ी खेरमाई मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यहां लगभग 1500 साल से लोग आराधना कर रहेहैं। खास बात यह है कि यहां बाना चढ़ाने की विशेष परंपरा है। प्रार्थना पूरी होने पर भक्त विशेष रूप से बानों को माँ के चरणों में बानों को अर्पण करते हैं। सबसे बड़े बाने को एक साथ 11 लोग पहनकर जवारा विसर्जन चल समारोह में निकलते हैं।

विविध रूपों में शक्ति की उपासना का सर्वोच्च पर्व

संपूर्ण भारत वर्ष में नवरात्र का उत्सव विविध रूपों में शक्ति की उपासना का सर्वोच्च पर्व है। नवरात्र पर्व में जनजातीय समाज की उपासना पद्धति हिन्दू संस्कृति के चित्रफलक में प्रकृति के विविध रंग भरती है। हमारा मूल एक ही है, इसलिए अपकारी शक्तियों द्वारा बांटने का कुत्सित प्रयास कभी सफलीभूत नहीं होगी। पाश्चात्य विद्वानों और तथाकथित सेक्यूलरों द्वारा जनजातीय समाज में मूर्ति पूजा का निषेध बताना मूर्खता है क्योंकि मूर्तियां निर्गुण की उपासना का प्रतीक हैं।