Gwalior Chambal Area: ज्योतिरादित्य सिंधिया के सामने वापसी तो कांग्रेस के सामने भाजपा के गढ़ भेदने की चुनौती
गुना संसदीय क्षेत्र में भाजपा आगे, आठ में से केवल दो विधानसभा सीट ही जीत सकी थी कांग्रेस, राव यादवेंद्र सिंह यादव भी हार गए थे चुनाव।
By vaibhav shridhar
Publish Date: Tue, 02 Apr 2024 04:00 AM (IST)
Up to date Date: Tue, 02 Apr 2024 04:00 AM (IST)

HighLights
- विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने मुरैना लोकसभा क्षेत्र में बनाई बढ़त।
- भिंड और ग्वालियर में दोनों दलों में बराबरी की स्थिति।
- कांग्रेस अभी मुरैना और ग्वालियर के प्रत्याशी ही तय नहीं कर पाई है।
Gwalior Chambal Area: वैभव श्रीधर, भोपाल। मध्य प्रदेश के लोकसभा चुनाव में सबकी नजर ग्वालियर-चंबल अंचल पर रहेगी। इसकी वजह है केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के फिर गुना सीट से चुनाव लड़ना। पिछला चुनाव वे कांग्रेस के टिकट पर लड़े थे और अपनों की दगाबाजी के कारण कांग्रेस से भाजपा में गए केपी सिंह यादव से हार गए थे। कांग्रेस के नेताओं से उनके मतभेद इतने बढ़े कि वे पार्टी छोड़कर समर्थक विधायकों के साथ भाजपा में चले गए और कमल नाथ सरकार के पतन का कारण भी बने।
भाजपा के गढ़ों को भेदने की चुनौती
भाजपा ने मध्य प्रदेश से राज्य सभा भेजा, जहां उनका कार्यकाल नौ अप्रैल 2026 तक है पर अब उन्हें पार्टी ने लोकसभा चुनाव लड़ाया है। यहां से कांग्रेस ने सिंधिया के परंपरागत प्रतिद्वंद्वी रहे मुंगावली के यादव परिवार के राव यादवेंद्र सिंह यादव पर दांव लगाया है। वैसे देखा जाए तो गुना सिंधिया परिवार, भिंड, मुरैना और ग्वालियर सीट भाजपा के गढ़ हैं। गुना में सिंधिया के सामने वापसी तो कांग्रेस के सामने भाजपा के इन गढ़ों को भेदने की चुनौती है। हालांकि, पार्टी अभी मुरैना और ग्वालियर के प्रत्याशी ही तय नहीं कर पाई है।
मध्य प्रदेश की राजनीति वैसे तो भाजपा और कांग्रेस के ईद-गिर्द ही घूमती है पर ग्वालियर-चंबल अंचल ऐसा है, जहां कुछ स्थानों पर बसपा का भी प्रभाव रहा है। भले ही इसके प्रत्याशी चुनाव न जीत पाते हों पर परिणामों को प्रभावित करने का माद्दा अवश्य रखते हैं। मुरैना लोकसभा सीट की बात करें तो यहां से भाजपा 1996 से लगातार चुनाव जीतती आ रही है। नरेंद्र सिंह तोमर को विधानसभा चुनाव लड़ाने के बाद पार्टी ने यहां से उनके भरोसेमंद शिवमंगल सिंह तोमर को प्रत्याशी बनाया है।
जाहिर है कि उन्हें जिताने की जिम्मेदारी भी नरेंद्र सिंह तोमर की ही रहेगी। यहां बसपा प्रभावी भूमिका में रही है। 2009 में यहां पार्टी को एक लाख 42 हजार और 2014 में एक लाख 29 हजार मत मिले। 2019 में तो बसपा दो लाख 42 हजार मत प्राप्त कर यहां दूसरे स्थान पर रही और कांग्रेस तीसरे।
विधानसभा चुनाव परिणामों की रोशनी में देखें तो मुरैना सीट कांग्रेस के लिए आस जगाने वाली है। यहां की आठ विधानसभा सीटों में से कांग्रेस ने पांच श्योपुर, विजयपुर, जौरा, मुरैना और अंबाह में जीत प्राप्त की। यही कारण है कि प्रत्याशी चयन में सामाजिक समीकरणों को साधने का प्रयास किया जा रहा है।
ग्वालियर लोकसभा सीट का हाल
ग्वालियर लोकसभा सीट की बात करें तो यहां 2007 से लगातार भाजपा जीत रही है। 2019 के चुनाव को छोड़ दें तो बाकी दो चुनावों में बसपा ने प्रभावी भूमिका निभाकर कांग्रेस को झटका देने का काम किया है। बसपा को जितने मत पिछले चुनावों में मिले, उससे कम अंतरों से कांग्रेस को हार मिली। 2009 में बसपा ने 74 हजार 481 मत प्राप्त किए और कांग्रेस के अशोक सिंह 26 हजार 591 मतों से पराजित हो गए। इसी तरह 2014 में फिर कांग्रेस के अशोक सिंह 29 हजार 699 मतों से हार गए। तब बसपा ने 68 हजार 196 मत लेकर उसका खेल बिगाड़ा था।
चार पर कांग्रेस तो चार पर भाजपा जीती
2019 में अवश्य मोदी लहर में बसपा की असरदार भूमिका में नहीं रही। भाजपा ने इस बार फिर यहां प्रत्याशी बदला है। नरेंद्र सिंह तोमर के नजदीकी भारत सिंह कुशवाहा को मैदान में उतारा गया है, जो चार माह पहले ग्वालियर ग्रामीण विधानसभा सीट से चुनाव हार गए थे। विधानसभा चुनाव में यहां मुकाबला बराबरी का रहा। चार सीटें कांग्रेस तो चार भाजपा ने जीतीं।
भिंड सीट पर मुकाबला रोचक
भिंड लोकसभा सीट भाजपा 1989 से जीतती आ रही है। यहां फिर संध्या राय को प्रत्याशी बनाया है तो कांग्रेस ने क्षेत्र में दलित चेहरा भांडेर से विधायक फूलसिंह बरैया को प्रत्याशी बनाकर मुकाबला रोचक बना दिया है। यहां बसपा अपनी उपस्थिति तो दर्ज कराती है पर मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही होता है।
सबकी नजर गुना सीट पर
ग्वालियर-चंबल अंचल की जिस सीट पर सबकी नजर है तो वह गुना है। यहां से केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा के टिकट पर पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं। पिछला चुनाव उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर लड़ा था लेकिन भाजपा के केपी सिंह यादव से चुनाव हार गए थे। इसकी बड़ी वजह अपनों की दगाबाजी थी। चुनाव परिणाम के बाद उन्होंने एक प्रकार से कमल नाथ और दिग्विजय सिंह के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया, जिसका असर यह हुआ कि 15 वर्ष बाद बनी कांग्रेस की सरकार अल्पमत में आ गई और कमल नाथ को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा।


