बॉलीवुड के मशहूर अभिनेता गोवर्धन असरानी ने 84 वर्ष की आयु में दुनिया को अलविदा कहा अपने पीछे सिर्फ फिल्मों की विरासत नहीं बल्कि शिक्षा, संघर्ष और जुनून की एक प्रेरक कहानी छोड़ गए हैं. जयपुर के एक साधारण लड़के से लेकर बॉलीवुड के कॉमेडी किंग बनने तक असरानी का सफर बताता है कि असफलता कभी भी सफलता की राह में बाधा नहीं बनती बस जरूरत है लगन और आत्मविश्वास की.
असरानी का जन्म 1 जनवरी 1941 को राजस्थान के जयपुर में एक मध्यमवर्गीय सिंधी-हिंदू परिवार में हुआ था. उनके पिता कालीन व्यापारी थे, और घर में सात भाई-बहन थे. असरानी बचपन से ही पढ़ाई में औसत छात्र थे. उन्होंने जयपुर के सेंट जेवियर्स स्कूल से 10वीं की पढ़ाई पूरी की, लेकिन गणित उनके लिए हमेशा सिरदर्द रहा. खुद असरानी ने एक इंटरव्यू में कहा था मैं गणित में फेल होता था, लेकिन नाटकों में मुझे हमेशा मजा आता था.
यही रुचि उन्हें पढ़ाई के दौरान ऑल इंडिया रेडियो, जयपुर तक ले गई, जहां उन्होंने वॉयस आर्टिस्ट के रूप में काम किया. यह छोटा-सा काम उनके करियर की पहली सीढ़ी साबित हुआ. इसके साथ-साथ उन्होंने राजस्थान कॉलेज, जयपुर से बीए की पढ़ाई भी पूरी की. यहीं से अभिनय के बीज अंकुरित हुए, जो बाद में बॉलीवुड की हंसी के पेड़ में बदल गए.
इनसे सीखीं बारीकियां
1960 में असरानी ने जयपुर के लेखक कलाभाई ठक्कर से अभिनय की बारीकियां सीखीं. 1962 में उन्होंने तय किया कि अब उन्हें पेशेवर रूप से अभिनय की शिक्षा लेनी चाहिए. वे मुंबई पहुंचे, जहां निर्देशक किशोर साहू और ऋषिकेश मुखर्जी ने उन्हें सलाह दी कि उन्हें अभिनय का औपचारिक प्रशिक्षण लेना चाहिए. इसी सलाह के बाद असरानी ने 1964 में फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (FTII), पुणे में दाखिला लिया.
FTII में असरानी की मेहनत और अभिनय के प्रति लगन ने सभी को प्रभावित किया. 1966 में कोर्स पूरा करने के बाद वे एक प्रशिक्षित कलाकार के रूप में तैयार थे. लेकिन उनका रास्ता आसान नहीं था. शुरुआती दिनों में उन्होंने छोटे-छोटे रोल किए जैसे हरे कांच की चूड़ियां (1967) में. धीरे-धीरे गुजराती फिल्मों में भी उन्होंने कदम रखा और 1967 से 1969 के बीच चार फिल्मों में अभिनय किया.
मिले कई अवार्ड
1970 का दशक असरानी के करियर का टर्निंग पॉइंट साबित हुआ. आज की ताज़ा खबर (1973) और बालिका वधू (1977) में उनके कॉमेडी किरदारों ने दर्शकों का दिल जीत लिया. फिल्मफेयर अवार्ड से सम्मानित हुए और 1975 की सुपरहिट फिल्म शोले में उनके जेलर वाले किरदार ने तो उन्हें अमर कर दिया. उनके डायलॉग हम अंग्रेजों के जमाने के जेलर हैं आज भी लोगों के जेहन में गूंजते हैं.
शानदार एक्टर
हालांकि असरानी सिर्फ कॉमेडियन नहीं थे, वे एक शानदार एक्टर, लेखक और निर्देशक भी थे. उन्होंने 25 से ज्यादा फिल्मों का निर्देशन किया, जिनमें हम नहीं सुधरेंगे (1980) और मां की ममता (1989) जैसी फिल्में शामिल हैं. असरानी की सफलता के पीछे उनके दोस्त राजेश खन्ना का भी बड़ा हाथ था. नमक हराम (1973) की शूटिंग के दौरान दोनों की दोस्ती हुई और खन्ना ने उन्हें अपनी कई फिल्मों में मौका दिलाया.
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